Thursday, April 26, 2018

My Poem : महानगर

    महानगर



तुम कहाँ हो??

मुझे छोड़ कर 

कहाँ चले गए हो?


कल चरखी पतंग लेकर 

सारे दिन तुम्हारा इन्तजार करता रहा

फिर हवा बंद हो गयी तो चला आया

तुम नहीं आये..


सुबह बालकनी में ठंडी सुहावनी हवा में

चाय लेकर तुम्हारा इन्तजार करता रहा

तुम नहीं आये…


तुम्हारा गिटार लगा रखा था

क़ि तुम कुछ धुन बजाते, बिना रुके,तल्लीन

तुम नहीं आये…


मॉल में घूमते घूमते कुछ भूख लगी

तो सैंडविच और कॉफ़ी ले बैठ कर

मेरी आँखें तुम्हे ठूँढ़ने लगी

तुम नहीं आए…


कविताओं की पुरानी डायरी

निकाली की, कुछ कहें सुने

तुम नहीं आये..


बहुत दिनों से छोटे छोटे सामान

बाज़ार से लाने थे

सोचा तुम ला दोगे, कहूँगा तो

तुम नहीं आये..


कल ढेर सा मनपसंद खाना बनाया

क़ि मिल कर शौक से खाएंगे

तुम नहीं आये..

छुट्टी का एक पूरा दिन

सैर सपाटा घूमना फिरना

सोचा अब आओगे

तुम नहीं आये…

सच कहना

तुम हो

या फिर………..



तब एक दिन मैंने तुम्हे देखा

महानगर की भीड़ में

दौड़ते भागते…


तुम शायद दफ्तर जा रहे थे

एक गाडी की पिछली सीट पर 

मुँह खोले नींद फाँकते…


फिर मुझे तुम दिखे डॉक्टर के यहाँ

लाइन में इंतज़ार करते 

अपने टोकन का..


तब से कई बार दिखते हो

राशन की दुकान में

सब्ज़ी मंडी में

कार की सर्विस कराते

लीक हो रहे नल को टाइट करते

कुछ बदहवास से

तुम्हारा चेहरा सूज गया सा लगा…


मैंने तुम्हे बुलाया

पर तुमने मुझे 

तुम्हारे बचपन के साथी को

जैसे पहचाना ही नहीं….


फिर एक रात जब तुम 

थक कर सो रहे थे

मैंने तुम्हारे रूखे बालो

में हाथ फिराया

तुमने नींद में पूछा

कौन है….


तब

मैंने तुम्हारा नाम

तुम्ही को बतलाया…


©पाखी

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